।।द्वारा सिद्धार्थ न्यूज से नीलकांत खटकर।।
घटना 1992 दिल्ली के हिमायुं रोड पर स्थित कोठी नंबर 10 की है. वक़्त शाम के लगभग 6 बजे का. पंजाब का एक लड़का पार्क में काम कर रहा था तो उसे अचानक संदेश मिला कि उसकी माता का देहांत हो गया है. लड़के ने रोना शुरू कर दिया. उसके रोने की आवाज़ सुनके साहेब बाहर आ गए और पूछा कि क्या हुआ? तब बामसेफ के कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि इस लड़के की माता का देहांत हो गया है. इतना सुनते ही साहेब ने बामसेफ के कार्यकर्ताओं को कहा कि इस लड़के के पंजाब जाने का फ़ौरन हर तरह से प्रबंध किया जाये. बामसेफ के कार्यकर्ताओं ने उसका किराए से लेकर हर तरह का प्रबंध करके उसे ट्रेन के रास्ते पंजाब की और रवाना कर दिया..
उसी रात लगभग 8:30 बजे साहेब रजिस्टर पर कुछ काम कर रहे थे जो कि चुनाव कमिश्नर को उपलब्ध कराया जाना था. काम करते करते साहेब ने पवन कुमार फौजी, जो कि हरियाणा के हिसार का रहने वाला था, जिसने साहेब से प्रभावित होकर डिफेन्स की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था, को कहा कि तू लकड़ी के स्केल से रजिस्टर पर मुझे लकीरे खींच कर देता चल. लकड़ी का मोटा-सा वह स्केल साहेब ने खुद बनवाया था. जब फौजी रजिस्टर पर लकीरें खींच कर दे रहा था तब साहेब ने भरे हुए मन से कहा कि “देखो, जब हम किसी मूवमेंट से जुड़ते हैं तब परिवार एक तरह से जैसे ख़त्म ही हो जाता है. मिशन की खातिर जज़्बात मारने पड़ते हैं. जब जज़्बात मर जाते हैं तब परिवार का अपमान भी सहना पड़ता है. साहेब ने आगे और दिल को झंकझोर देने वाले शब्द कहते हुए कहा कि आज इस लड़के की माँ नहीं रही, और एक दिन मेरी माँ को भी मर जाना है. यह भी क्या पता कि शायद मैं अपनी माँ की चिता में लकड़ी भी ना डाल सकूँ। साहेब के यह शब्द फौजी को अचरज भरे लगे. उसके बाद फौजी तीन दिन और साहेब के साथ रहा, और जाते जाते साहेब से लकड़ी का स्केल मांग कर ले गया. फौजी 13 साल तक, साहेब का भेंट किया हुआ स्केल, झोले में डालकर जहाँ भी गया, साथ ही लेकर गया।
21 दिसंबर, 2005 का फिर वह मनहूस दिन आया जिस दिन साहेब कांशी राम जी की माता बिशन कौर का देहांत हो गया. इसे संयोग ही कहिये कि साहेब के मुंह से सहज स्वभाव 1992 में निकले शब्दों, “क्या पता, मैं अपनी माता की चिता पर लकड़ी भी न डाल सकूँ!” के मुताबिक इधर माता का देहांत हो गया था और उधर उनका बेटा कांशी राम नामुराद बीमारी से पीड़ित लगभग सवा दो साल से बिस्तर पर पड़ा मौत से जंग लड़ रहा था। जब पवन कुमार फौजी साहेब की माता बिशन कौर के अंतिम संस्कार पर पहुँचा तब माता बिशन कौर की जलती चिता के पास खड़े होकर उसे साहेब के 13 साल पहले कहे हुए अलफ़ाज़ याद आये, “क्या पता, मैं अपनी माता की चिता पर लकड़ी भी न डाल सकूँ!” फिर उसे उस वक़्त याद आया कि 13 साल पहले साहेब ने मुझे जो लकड़ी का स्केल भेंट किया था, शायद वह इस मनहूस मौके के लिए ही भेंट किया था. फौजी ने उसी वक़्त लकड़ी का स्केल अपने झोले से निकाला और माता के चरणों की और खड़े हो कर जलती हुई चिता पर कुछ यूं समर्पित किया, “ये लीजिये माता जी, आपके बेटे द्वारा भेजा हुआ लकड़ी का टुकड़ा! क्या हुआ अगर आपका कांशी राम आज खुद चलकर लकड़ी डालने नहीं आ सका. लेकिन इस लकड़ी के टुकड़े को हाथ तो तेरे बेटे के ही लगे हुए हैं।
🙏 धन्य है मान्यवर कांशीराम💐